Sunday, July 24, 2011
एक परिंदा
जब छोटा था वो,
उड़ने की चाह में कितनी बार गिरा था वो |
हिम्मत ना हारी लेकिन उसने,
और अपने घोसले से उड़ चुका था वो |
सुबह सुबह उड़कर जब,
वो मेरी खिड़की पर आ बैठता था,
यही कहता था मुझसे वो,
आसमा में उड़ने के लिए पूछता था वो |
ज़िन्दगी में उसके कोई लक्ष्य ना था,
मन में किसी के लिए कोई रोष न था |
अपनी ही मस्ती में मस्त था वो,
जीने का उसमे एक जोश सा था |
कितने मौसम कितने पहाड़ देंखे उसने,
और कितनी ही नदियों का पानी पिया हैं,
लेकिन फिरभी घुमने की चाह को,
उसने अपने दिल में जगा रखा हैं |
एक शिकारी को उसका उड़ना रास ना आया,
तानकर उसने अपना निशाना लगाया |
पंख बिखर गए थे परिंदे के,
फिर भी वो उड़ने की आस ना हारा |
दुसरे साल जब वो फिर मेरी खिड़की पर आया,
मुझे अपनी कहानी सुनाकर मुस्कराया |
फिर अपने अगले मुकाम पर निकल गया था वो,
नए दोस्तों की तलाश में लगा था वो |
मन में के ही सवाल उठता हैं,
क्या परिंदा होना इतना आसन होता हैं ?
या शायद हम ही चाहकर भी उद्द नहीं पाते,
और दुसरो की सोच में गूम जाते हैं ?
- हितेश खण्डेलवाल
Ek Parinda
Hitesh Khandelwal
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