Thursday, September 23, 2010

ज़िन्दगी फिर किस जिद्द पर अड्ड गयी हैं



जिन्दगी फिर किस जिद्द पर अड्ड गयी हैं,
खिड़की से दिखते उदास आसमान से लिपट गयी हैं,
शराब के नशे सी बहक गयी हैं,
रिश्तो की गाँठ सी घुट गयी हैं |

खेतो की हरियाली सी कभी हँसती हैं,
तो कभी पतझड़ के मौसम सी बिखर गयी हैं,
ठिठुरती सर्दियों सी सिमट गयी हैं,
अंगारों की गर्मी सी भड़क गयी हैं |

पानी की पारदर्शिता सी धुल गयी हैं,
कीचड़ के क़ारे सी मैली हो गयी हैं,
फलक की ऊचाई से गिर गयी हैं,
सागर की लहरों सी मचल गयी हैं |

साँसों में साँसों सी अटक गयी हैं,
डूबते सूरज की रोशिनी सी मद्दह्म हो गयी हैं,
किताबों के पन्नों सी बन्ध गयी हैं,
स्याही के रंग सी गहरी हो गयी हैं |

अनजान रास्तों की तरह, भटक गयी हैं,
गुमसुम सी हैं, सोचो में खोई रहती हैं,
कितना समझाता हूँ इस नादान को, फिर भी
ज़िन्दगी किस जिद्द पर अड्ड गयी हैं ?

- हितेश खण्डेलवाल

Zindagi kis zidd par adi hey
Hitesh Khandelwal