Monday, August 31, 2009

मंजिल कहीं खो गयी हैं


रास्ता है लेकिन मंजिल कहीं खो गयी हैं,
होश है लेकिन उम्मीद कहीं खो गयी हैं|

निकले थे सिर पर बाँध कर कफ़न,
अब तो हर साँस भी दफ़न हो गयी हैं |

लौटते हुए हर मुसाफिर से पुछा पता,
ज़वाब से मुश्किलें और भी मुश्किल हो गयी हैं |

उगते सूरज की तपन मद्धम हो गयी हैं,
और चाँद की रोशिनी में भी रात अँधेरी सी हो गयी हैं |

राहों में ठोकर, दिल में तड़प मिली,
इस भीड़ भरी दुनिया में, जीने की जरुरत सी कम हो गयी हैं |

नज़रे धुंधला गयी है, धड़कने अटक गयी हैं,
मुझ मुसाफिर की हिम्मत थक सी गयी हैं |

पलट कर देखा तो दुनिया बेगानी हो गयी हैं,
मुझ हारे हुआ की बदनामी सी हो गयी हैं |

कोई अपना ना हो राहों में तोह लगता है,
मानो मंजिल को पाकर भी, मंजिल कहीं खो गयी हैं|

- हितेश खण्डेलवाल

Manzil Kahin Kho Gayi Hai
Hitesh Khandelwal
PS: Please do point out spelling mistakes, if any.